बात उस ज़माने की है जब औरते घर से बाहर नहीं निकलती थी... मर्द कमाते थे और उनकी बीवियां घर का चूल्हा - चोका संभालती थी...बेटियों की कम उम्र में शादी कर दी जाती थी...पर आज वक़्त बदला है,लड़कियों ने घर से बाहर कदम रख दिया है... लड़कियां आज किसी से कम नहीं...उन्होंने भी समाज में एक नई मिशाल कायम किया है,की वो घर क्या घर से बाहर भी काम कर सकती है...जन्हा लड़कियों ने फ़र्ज़ को निभाते हुए अपनी एक नई पहचान बनायीं है वही समाज के कुछ लोग अभी भी लडकियों को अपनी हाथ की कठपुतली समझ रखा है...अभी भी कुछ असामाजिक तत्वों की वजह से समाज में लड़कियों के काम करने से लेकर बाहर आने जाने तक को गलत ठराती है...लेकिन क्यूँ , अगर लड़की कमा कर लाये तो वो क्यूँ गलत है वो १० लोगो के संग उठे बैठे तो क्या गलत है, सिर्फ इसलिए की वो एक लड़की है....क्यूँ उनपे १०० उँगलियाँ उठ जाती है एक लड़के पे क्यूँ नहीं चाहे वो हज़ार पाप करके आये एक लड़की पे ही क्यूँ उठती है लोगो की उँगलियाँ ...!समाज में अभी भी इतनी सद्भावना क्यूँ, एक लड़की पे ही कलंक के निशाँन क्यूँ पड़ते है, चाहे लड़का भी उस पाप में बराबर का भागीदारी क्यूँ न हो...सुना होगा कई बार अरे वो तो लड़का है, उस लड़की को तो संभल कर रहना चाहिए, पर क्यूँ एक लड़की ही क्यूँ हमेशा ये सब सहे..समाज में इतना भेद भाव क्यूँ...एक लड़का और लड़की को लेकर....जब शादी होती है तो लोग पति और पत्नी को गाड़ी के २ पहिया के समानं समझते है तो फिर यही भावना कुंवारी लड़कियों के लिए क्यूँ नहीं....
आज हम २१ वी सदी में आकर भी इतना फर्क क्यूँ रखते है ....?क्यूँ डर के साए में अभी भी जीती है लड़कियां...क्यूँ उनको पर्दा रखना होता है इस समाज से....लड़कियों के अरमानो को ही क्यूँ हमेशा कुचल दिया जाता है...! हर फ़र्ज़ उनके ही मत्थे क्यूँ???? इस आज़ाद भारत में हम लड़कियां ही क्यूँ आज़ाद नहीं..कर्तव्य अपनी जगह है पर हमारा जन्म कर्त्वए निभाने के लिए हुआ है...हमारी ज़िन्दगी में हमारा कोई हक नहीं..क्यूँ बगावत करनी पड़ती है अपने हक क लिए...????
हमारी खुशियों के बारे में क्यूँ अभी भी लोग नहीं सोचते....हम सोचते है बड़े होकर माता पीता की ख़ुशी, बड़े हो तोछोटे भाई बहनों की ख़ुशी, अगर छोटे है तो बड़े भाई बहन की ख़ुशी, प्रेमी हो तो उसकी ख़ुशी, कदम घर से बाहर रखो तो ज़माने की ख़ुशी, शादी हो तो पति और उसके परिवार की ख़ुशी, बच्चे हो तो उनकी ख़ुशी...हमारी ज़िन्दगी दूसरों की ख़ुशी में ही गुजर जाती है...तो क्या हमे हमेशा अपने हक अपने स्वाभिमान के लिए लड़ना होगा....बिना मांगे क्या हमे हमारा हक नहीं देंगे हमारे अपने....नहीं समझंगे हमारे सपनो को...हमारी दर्द हमारे जस्बातों को...क्या अपनी जस्बातों को दिखाने का हक एक मर्द को ही है, हम लड़कियों को नहीं....??
बदलेगा हालात या यूँही जूझते रहेंगे हम अपने हर एक हक के लिए...घुटते रहेंगे हर दिन और जलते रहेंगे हमारे ख्वाइशओं की फुलझरियां यूँही दर दर भटकते हुए.....